महर्षि दयानंद सरस्वती का त्रैतवाद
नमस्ते शिक्षार्थियों!
आपने कभी सोचा है कि यह संसार कैसे अस्तित्व में आया? क्या यह केवल ईश्वर की मर्जी से बना है या इसके पीछे कुछ और कारण भी हैं? महर्षि दयानंद सरस्वती, जिन्होंने वेदों और भारतीय दर्शन का गहन अध्ययन किया, ने हमें सृष्टि के निर्माण के बारे में एक महत्वपूर्ण विचारधारा दी जिसे हम त्रैतवाद कहते हैं। यह विचारधारा बताती है कि सृष्टि ईश्वर, जीव, और प्रकृति के बीच के संयोग से बनी है।
इस ब्लॉग में हम त्रैतवाद के इस अद्भुत सिद्धांत को गहराई से समझने का प्रयास करेंगे। हम जानेंगे कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदों के आधार पर इस सिद्धांत को कैसे परिभाषित किया और सृष्टि में ईश्वर, जीव, और प्रकृति की क्या भूमिकाएँ हैं।
सृष्टि के निर्माण के तीन मुख्य सिद्धांत
अद्वैतवाद (Monism): एकत्व
यह सिद्धांत कहता है कि सृष्टि केवल एक ही तत्व से बनी है। यह तत्व ईश्वर है, और सब कुछ उसी का हिस्सा है। इसका अर्थ यह है कि संसार और ईश्वर में कोई अंतर नहीं है। अद्वैतवाद के समर्थक मानते हैं कि संसार और चेतना (ईश्वर) एक ही हैं।
लेकिन महर्षि दयानंद इस विचार से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि ईश्वर और सृष्टि अलग-अलग हैं। ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, लेकिन सृष्टि और ईश्वर एक नहीं हैं।
द्वैतवाद (Dualism): दो प्रमुख तत्व
यह सिद्धांत कहता है कि सृष्टि की रचना दो चीजों के संयोग से हुई है: जड़ (प्रकृति) और चेतन (पुरुष)। इस विचारधारा में कहा जाता है कि संसार का निर्माण प्रकृति और पुरुष के साथ आने से होता है, और दोनों अलग-अलग हैं।
महर्षि दयानंद इस सिद्धांत के भी कुछ भागों से सहमत थे, लेकिन उन्होंने एक और महत्वपूर्ण तत्व को इसमें जोड़ा।
त्रैतवाद (Tritavad): तीन शाश्वत तत्व
त्रैतवाद महर्षि दयानंद सरस्वती की विचारधारा है, जिसमें यह कहा गया है कि सृष्टि का निर्माण ईश्वर, जीव, और प्रकृति के संयोग से होता है। ये तीनों तत्व अनादि हैं और सृष्टि में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार, ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण है, जीव साधारण कारण है, और प्रकृति उपादान कारण है।
त्रैतवाद का मूल सिद्धांत
त्रैतवाद शब्द सुनने में थोड़ा जटिल लग सकता है, लेकिन इसका अर्थ बहुत ही सरल है। यह विचारधारा कहती है कि सृष्टि की रचना के लिए तीन चीजें आवश्यक हैं: ईश्वर, जीव, और प्रकृति। महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदों का अध्ययन करते हुए यह सिद्ध किया कि यह तीनों तत्व अनादि हैं, यानी इनका कोई आरंभ या अंत नहीं है। ईश्वर वह शक्ति है जो इस संसार की रचना करती है, जीव वह आत्मा है जो इस संसार में रहती है, और प्रकृति वह सामग्री है जिससे यह सृष्टि बनी है।
आइए इसे एक उदाहरण से समझते हैं, कल्पना कीजिए कि आप मिट्टी से एक सुंदर मिट्टी का घड़ा बना रहे हैं। इस घड़े को बनाने के लिए आपके पास मिट्टी (प्रकृति), इसे बनाने के लिए आप स्वयं (जीव), और आपका ज्ञान और क्षमता (ईश्वर के समान) होना चाहिए। इसी प्रकार, महर्षि दयानंद ने यह बताया कि सृष्टि की रचना में भी यही तीन मुख्य तत्व होते हैं: ईश्वर, जीव, और प्रकृति।
महर्षि दयानंद के त्रैतवाद सिद्धांत की उत्पत्ति
महर्षि दयानंद सरस्वती ने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और पाया कि सृष्टि की रचना के पीछे एक गहरा विज्ञान है। वेदों में दिए गए मंत्रों को समझने के बाद, महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में त्रैतवाद के सिद्धांत का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने वेदों के चार प्रमुख मंत्रों को उद्धृत करते हुए बताया कि सृष्टि के निर्माण के लिए ईश्वर आवश्यक है, जो इस संसार का निर्माता है।
महर्षि दयानंद ने बताया कि सृष्टि का निर्माण तभी हो सकता है जब तीन कारण एक साथ काम करें:
- निमित्त कारण (ईश्वर)
- उपादान कारण (प्रकृति)
- साधारण कारण (जीव)
महर्षि दयानंद ने ऋग्वेद और तैत्तिरीयोपनिषद के मंत्रों के माध्यम से बताया कि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है, लेकिन इसके निर्माण में प्रकृति और जीव का भी योगदान होता है।
सृष्टि के निर्माण में ईश्वर, जीव, और प्रकृति की भूमिका
महर्षि दयानंद ने स्पष्ट किया कि सृष्टि का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें ईश्वर, जीव, और प्रकृति तीनों की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने बताया कि सृष्टि के निर्माण के लिए तीन प्रकार के कारण होते हैं:
1. निमित्त कारण:
निमित्त कारण वह होता है जिससे निर्माण होता है। महर्षि दयानंद के अनुसार, ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। ईश्वर की शक्ति और ज्ञान के बिना सृष्टि का निर्माण संभव नहीं है।
ईश्वर के बिना सृष्टि का कोई निर्माण नहीं हो सकता, लेकिन वह खुद निर्माण प्रक्रिया में सीधे शामिल नहीं होता, बल्कि उसे चलाने की शक्ति देता है।
2. उपादान कारण:
उपादान कारण वह तत्व होता है जिससे वस्तु का निर्माण होता है। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। महर्षि दयानंद ने इसे स्पष्ट किया कि प्रकृति वह सामग्री है जिससे सृष्टि बनी है, लेकिन इसे आकार देने के लिए ईश्वर की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, जब एक कुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है, तो मिट्टी उपादान कारण होती है।
3. साधारण कारण:
साधारण कारण वे साधन होते हैं जिनसे निर्माण होता है। जीव, इस सृष्टि के साधारण कारण होते हैं। महर्षि दयानंद ने बताया कि जीव के बिना इस सृष्टि का अनुभव और उसका विकास संभव नहीं है।
जीवों का इस संसार में जन्म, जीवन, और कर्म इसी कारण होते हैं ताकि सृष्टि का क्रम चलता रहे।
ऋग्वेद के माध्यम से त्रैतवाद
चलिए इसे एक सरल उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए कि आप एक पुल बना रहे हैं। उस पुल को बनाने के लिए इंजीनियर (निमित्त कारण), निर्माण सामग्री जैसे सीमेंट और लोहे (उपादान कारण), और औजार व तकनीक (साधारण कारण) की आवश्यकता होती है। यदि इन तीनों में से एक भी नहीं हो, तो पुल का निर्माण संभव नहीं होगा।
इसी प्रकार, महर्षि दयानंद के त्रैतवाद के अनुसार, सृष्टि के निर्माण के लिए ईश्वर, जीव, और प्रकृति तीनों आवश्यक हैं। ये तीनों तत्व अनादि हैं, यानी इनका कोई आरंभ नहीं है। दयानंद सरस्वती अपने त्रैतवाद का समर्थन करने के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र का उद्धरण देते हैं।
ऋग्वेद का मंत्र:
महर्षि दयानंद ने अपने विचारों को स्पष्ट करने के लिए ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण मंत्र उद्धृत किया:
“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समाना वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।”
(ऋग्वेद, मंडल 1, सूक्त 164, मंत्र 20)
इस मंत्र में दो पक्षियों का वर्णन है जो एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हैं। इनमें से एक पक्षी (जीवात्मा) वृक्ष के फल का आनंद ले रहा है, जबकि दूसरा पक्षी (परमात्मा) केवल देख रहा है। यह मंत्र त्रैतवाद के सिद्धांत को गहराई से समझाता है कि जीव और परमात्मा अलग-अलग हैं, लेकिन एक ही संसार (वृक्ष) में रहते हैं। परमात्मा कर्मों का फल नहीं भोगता, जबकि जीव कर्मों के परिणामस्वरूप सुख-दुख भोगता है.
मंत्र की व्याख्या:
“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया”
इस वाक्य का अर्थ है कि दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो मित्र हैं, एक साथ एक ही वृक्ष पर बैठे हैं। यहाँ पक्षियों को जीव और परमात्मा के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है। वे एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, जिसका अर्थ है कि दोनों एक ही संसार (वृक्ष) में निवास करते हैं।
“समाना वृक्षं परिषस्वजाते”
दोनों पक्षी एक ही वृक्ष का सहारा लेते हैं, जिसका अर्थ है कि यह संसार, यानी प्रकृति, जीव और परमात्मा दोनों के लिए साझा स्थान है।
“तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य”
यहां पहला पक्षी (जीव) वृक्ष के फल का स्वाद ले रहा है, जिसका मतलब है कि जीव इस संसार में कर्म करता है और सुख-दुख का भोग करता है। यह पक्षी कर्मों के बंधन में बंधा हुआ है और संसार में होने वाली हर घटना का अनुभव करता है।
“अनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति”
दूसरा पक्षी (परमात्मा) फल नहीं खा रहा है, बल्कि सब कुछ देख रहा है। इसका मतलब है कि परमात्मा कर्मफल से परे है। वह केवल साक्षी है, जो हर घटना को देखता है लेकिन उसमें संलग्न नहीं होता। परमात्मा सृष्टि का संचालन करता है, पर स्वयं कर्मों के बंधन से मुक्त होता है।
इस मंत्र की व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि त्रैतवाद के अनुसार, जीव और परमात्मा भिन्न हैं, लेकिन वे एक ही संसार का हिस्सा हैं। जीव इस संसार में कर्म करता है और उसका फल भोगता है, जबकि परमात्मा केवल साक्षी के रूप में उपस्थित होता है, जो सृष्टि का संचालन करता है।
महर्षि दयानंद का त्रैतवाद और वेदांत
महर्षि दयानंद सरस्वती ने त्रैतवाद को वेदांत दर्शन से भी जोड़ा। उन्होंने कहा कि वेदांत दर्शन के पहले अध्याय के प्रथम पाद के दो प्रमुख वाक्य अथातो ब्रह्मजिज्ञासा और जन्माद्यस्य यतः त्रैतवाद को सिद्ध करते हैं।
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ब्रह्म सूत्र, 1.1.1)
इस वाक्य का अर्थ है कि अब हमें ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में जानने की जिज्ञासा रखनी चाहिए। यह बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, और लय (प्रलय) ईश्वर से होती है और यह जिज्ञासा ब्रह्म को समझने का पहला कदम है।
जन्माद्यस्य यतः (ब्रह्म सूत्र, 1.1.2)
इस वाक्य का अर्थ है कि जिस कारण से सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, और प्रलय होती है, वह जानने योग्य है। यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है, और यह सृष्टि उसके आदेश पर चलती है।
प्रकृति और ईश्वर के संबंध में प्रश्न
महर्षि दयानंद ने कहा कि यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर ईश्वर सृष्टि का निर्माता है, तो क्या उसने प्रकृति को भी बनाया? इसका उत्तर उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से दिया कि प्रकृति भी अनादि है, यानी प्रकृति का भी कोई आरंभ नहीं है।
उन्होंने वेदों के मंत्रों के माध्यम से बताया कि प्रकृति शाश्वत है, और यह संसार उस सामग्री (प्रकृति) से बना है। ईश्वर ने केवल सृष्टि को आकार दिया है, लेकिन उसने प्रकृति की रचना नहीं की।
उपसंहार
महर्षि दयानंद सरस्वती का त्रैतवाद सृष्टि के निर्माण के रहस्यों को उजागर करने वाला एक अद्भुत सिद्धांत है। यह विचारधारा हमें यह समझने में मदद करती है कि इस संसार की रचना ईश्वर, जीव, और प्रकृति के बिना संभव नहीं है। त्रैतवाद हमें सिखाता है कि सृष्टि का निर्माण, उसके तत्व, और उनका सह-अस्तित्व एक गहरा विज्ञान है, जिसे समझने के लिए हमें वेदों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
जीवन में त्रैतवाद का महत्व:
त्रैतवाद केवल सृष्टि के निर्माण को नहीं समझाता, बल्कि यह हमें जीवन की वास्तविकता को समझने में भी मदद करता है। यह हमें बताता है कि संसार में प्रत्येक व्यक्ति (जीव) के कर्म का फल मिलता है, जबकि परमात्मा साक्षी मात्र होते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे कर्म ही हमें बंधन में डालते हैं, और सृष्टि का संचालन नियम और कारणों के आधार पर होता है।
अंततः, महर्षि दयानंद के त्रैतवाद के अनुसार, हमें जीवन को इस प्रकार जीना चाहिए कि हम अपने कर्मों से मुक्त होकर परमात्मा के साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकें।