कश्मीरी शैववाद: शिव की भक्ति का गहरा अर्थ

नमस्ते शिक्षार्थियों!

हिंदू, भगवान शिव की पूजा गहरी भक्ति से करते हैं, वे उपवास रखते हैं, प्रार्थना करते हैं और अपने पूर्वजों से प्राप्त रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि हम ये सब क्यों करते हैं? इन प्रथाओं के पीछे का सच्चा अर्थ क्या है? इस लेख में, हम शैववाद की कहानी का अन्वेषण करेंगे, जो भगवान शिव को समर्पित एक परंपरा है। हम समय के प्रवाह में वापस जाकर इसके मूल को समझेंगे, शैववाद के भीतर विभिन्न मार्गों के बारे में जानेंगे, और उस शक्तिशाली दर्शन को खोजेंगे जो हमें शिव से जोड़ता है। आइए इस यात्रा को साथ में शुरू करें।

अद्वैत शैव दर्शन: शिव और सृष्टि का अभेद

सावन का महीना हम सबके लिए शिव जी की पूजा और आराधना का समय है। इस दौरान हम शिवलिंग की स्थापना, शिव पुराण की कथा, और शिव आराधना करते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि शिव पूजा के पीछे कौन सा दर्शन है? अद्वैत शैव दर्शन इसी सवाल का जवाब है। यह दर्शन हमें सिखाता है कि शिव न केवल एक देवता हैं, बल्कि सृष्टि और आत्मा के मूल कारण हैं। शिव और इस संसार के बीच कोई भेद नहीं है, और इसका विस्तृत वर्णन हमें कश्मीरी शैव दर्शन में मिलता है।

शैव परंपरा की जड़ें हड़प्पा सभ्यता में भी पाई जाती हैं और इसने हजारों वर्षों में अनेक रूपों में विकास किया है। आज हम कश्मीरी अद्वैत शैव दर्शन के इतिहास, सिद्धांत और इसके गूढ़ रहस्यों को समझेंगे, जिससे आप शिव के वास्तविक स्वरूप को गहराई से समझ सकें।

The Pashupati seal discovered during excavation of the Indus Valley archaeological site of Mohenjo-Daro. Circa 2350-2000 BCE.

A hypothetical  lingam from Mohenjo Daro.

शैव दर्शन के तीन मुख्य प्रकार

भारत में शैव दर्शन के तीन प्रमुख रूप विकसित हुए:

1. वीर शैव (कर्नाटक): इसे लिंगायत धर्म भी कहा जाता है, जो शिव की भक्ति पर आधारित है।

2. द्वैत शैव (तमिलनाडु): इसे शैव सिद्धांत कहा जाता है, जो शिव और जीव के भेद को मानता है।

3. अद्वैत शैव (कश्मीर): जिसे प्रत्यभिज्ञा दर्शन कहा जाता है, यह मानता है कि शिव और जीव में कोई भेद नहीं है।

इस ब्लॉग में हम कश्मीरी अद्वैत शैव दर्शन पर विशेष ध्यान देंगे, जो शिव और सृष्टि के बीच के संबंध को गहराई से समझाता है।

कश्मीरी शैव दर्शन में शिव और उनकी पांच शक्तियाँ

अद्वैत शैव दर्शन में शिव केवल एक परमात्मा नहीं हैं, बल्कि उनकी पाँच शक्तियों का भी वर्णन किया गया है।

शिव के पांच शक्तियों का वर्णन करते हुए विज्ञान भैरव में लिखा है:

“चित्तं कृत्यं कारणं च, आनंद इत्येव च।”

इच्छा ज्ञानं चक्रं च, पञ्च शक्त्यः शिवस्य च।”

(विज्ञान भैरव, श्लोक 8)

इस श्लोक में शिव की चित्त, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्तियों का उल्लेख किया गया है, जो सृष्टि के हर पहलू को नियंत्रित करती हैं।

 ये पाँच शक्तियाँ सृष्टि के निर्माण और संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे हैं:

1. चित्त: यह शिव की शुद्ध चेतना है, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है।

2. आनंद: शिव का आनंद, जिससे सृष्टि की प्रेरणा मिलती है।

3. इच्छा: यह सृष्टि को उत्पन्न करने की शिव की इच्छा को दर्शाती है।

4. ज्ञान: शिव का ज्ञान, जो सृष्टि को दिशा और उद्देश्य देता है।

5. क्रिया: यह शिव की शक्ति है, जो सृष्टि का निर्माण, पालन और विनाश करती है।

इसे एक उदाहरण से समझते है, एक कलाकार जब चित्र बनाता है, तो सबसे पहले वह उसे अपने मन में कल्पना करता है (चित्त), फिर उसे बनाने का आनंद अनुभव करता है (आनंद), उसे बनाने की इच्छा करता है (इच्छा), और अंततः उसे बनाने के लिए आवश्यक ज्ञान और क्रिया का उपयोग करता है (ज्ञान और क्रिया)। इसी तरह शिव की ये पाँच शक्तियाँ इस संसार को चलाती हैं, जो उनकी अनंतता का हिस्सा हैं।

अहम् और इदम का सिद्धांत

अद्वैत शैव दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है अहम् (मैं) और इदम (यह) का, जिसमें शिव को “मैं” और सृष्टि को “यह” के रूप में देखा जाता है। शिव की मूल अवस्था में अहं और इदम एक होते हैं – इसे अहं इदम कहा जाता है। जब शिव और सृष्टि में कोई भेद नहीं होता, यह अद्वैत की स्थिति है।

इस सिद्धांत को शिवसूत्र में विस्तार से बताया गया है:

“अहं इदम् न तत्त्वम्।” (शिवसूत्र, 1.3)

इस श्लोक का अर्थ है कि जब “मैं” और “यह” के बीच भेद समाप्त हो जाता है, तब शिव की वास्तविकता का अनुभव होता है।

सृष्टि के आरंभ में:

जब चित्त शक्ति इस एकता को तोड़ती है, तो “अहम” और “इदम” अलग हो जाते हैं। इससे सृष्टि का आरंभ होता है, और यही महेश्वर की अवस्था कहलाती है। यह भेद शिव की विभिन्न अवस्थाओं में धीरे-धीरे बढ़ता जाता है:

1. शिव अवस्था में अहम् और इदम एक ही होते हैं।

2. सदाशिव अवस्था में अहम् प्रमुख होता है, यानी “मैं यह हूँ”।

3. ईश्वर अवस्था में इदम प्रमुख होता है, यानी “यह मैं हूँ”।

4. सद्विद्या अवस्था में दोनों बराबर होते हैं, यानी “मैं भी हूँ और यह भी है”।

माया और मल: बंधन और मुक्ति के रहस्य

अद्वैत शैव दर्शन में कहा गया है कि शिव की शुद्ध चेतना को तीन प्रकार की अशुद्धियाँ (मल) ढक लेती हैं, जिसके कारण जीवात्मा शिव से अलग महसूस करती है। ये तीन मल हैं:

1. आणव मल: यह जीवात्मा को अपूर्णता का अनुभव कराता है।

2. मायीय मल: यह अज्ञान का कारण है, जो शिव के वास्तविक स्वरूप को छिपा देता है।

3. कार्मिक मल: यह कर्मों के बंधन में जीवात्मा को बांधता है, जिससे वह संसार के सुख-दुख का अनुभव करती है।

शिवसूत्र में इन अशुद्धियों को मिटाने के उपाय बताए गए हैं:

“ज्ञानं बन्धः।” (शिवसूत्र, 1.2)

अर्थात अज्ञान ही बंधन है, और इसे समाप्त करने का उपाय है – ज्ञान।

मुक्ति के उपाय :

1.आणवोपाय: यह आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन करता है। आणवोपाय साधक को उसकी सीमितता और अज्ञानता से बाहर निकालने का उपाय है। इसमें साधक का ध्यान बौद्धिक और मानसिक प्रक्रियाओं पर केंद्रित होता है। इसका उद्देश्य आत्मा को उसकी सूक्ष्म प्रकृति से मुक्त करके परमात्मा के साथ एकता की अनुभूति कराना है।

2. शाक्तोपाय: यह उपाय शिव की शक्ति के माध्यम से होता है। इसमें ध्यान और भक्ति के द्वारा शिव की शक्तियों को जाग्रत किया जाता है। साधक शिव की चेतना में प्रवेश करने की कोशिश करता है, ताकि वह शिव के साथ एकत्व का अनुभव कर सके।

3. शांभवोपाय: इस उपाय में साधक अपनी आत्मा को शिव के रूप में पहचानने का प्रयास करता है। यह ध्यान का सर्वोच्च रूप है, जिसमें साधक सीधे अनुभव करता है कि वह स्वयं शिव है। इसमें शब्द या विचारों का कोई स्थान नहीं है, केवल अद्वैत अनुभव होता है।

4. अनुपाय: यह सर्वोच्च उपाय है, जिसमें साधक को किसी साधना या प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। जब साधक की चेतना अपने आप शिव के साथ मिल जाती है, तब यह अवस्था आती है। इसे सहज मुक्ति कहा जाता है, जो बिना किसी विशेष साधना के भी हो सकती है।

अद्वैत शैव दर्शन का सारांश

अद्वैत शैव दर्शन हमें यह समझाता है कि शिव और जीव के बीच कोई वास्तविक भेद नहीं है। शिव ही इस सृष्टि के मूल कारण हैं, और इस संसार का हर कण शिव का ही स्वरूप है। दर्शन यह सिखाता है कि संसार का निर्माण, पालन, और विनाश शिव की पांच शक्तियों (चित्त, आनंद, इच्छा, ज्ञान, और क्रिया) के द्वारा ही होता है।

जब जीवात्मा इन पांच शक्तियों और शिव के साथ अपने संबंध को पहचान लेता है, तब वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। शिव की चेतना को माया और मल (आणव, मायीय, और कार्मिक) से ढक दिया जाता है, जिसके कारण जीवात्मा को शिव से भिन्नता का अनुभव होता है। लेकिन इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य यह है कि साधक इन मल से मुक्त होकर शिव के साथ एक हो सके।

शिवसूत्र में कहा गया है: “मोक्षस्य लक्षणम्।”

(शिवसूत्र, 2.1)

इसका अर्थ है कि मोक्ष का लक्षण यही है कि जब आत्मा शिव की वास्तविकता को पहचान लेती है और बंधन समाप्त हो जाते हैं।

यहां मोक्ष प्राप्त करने के चार प्रमुख उपायों में आणवोपाय, शाक्तोपाय, शांभवोपाय, और अनुपाय का वर्णन किया गया है, जो साधक को बंधनों से मुक्त कर शिव के अद्वैत स्वरूप को प्राप्त करने की ओर ले जाते हैं।

उपसंहार

अद्वैत शैव दर्शन केवल एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह हमें जीवन की गहरी समझ और सृष्टि के मूल कारणों तक पहुँचने का मार्ग दिखाता है। यह दर्शन हमें यह सिखाता है कि शिव और जीव में कोई भेद नहीं है – शिव ही सृष्टि हैं और सृष्टि शिव है। इस दर्शन का उद्देश्य है आत्मा और परमात्मा (शिव) के बीच की एकता को पहचानना, और यह समझना कि जीवात्मा माया और मल के कारण स्वयं को शिव से अलग अनुभव करता है।

जीवन में अद्वैत शैव दर्शन का महत्व:

आज की भागदौड़ भरी दुनिया में जहां हम बाहरी चीजों के पीछे दौड़ते रहते हैं, अद्वैत शैव दर्शन हमें भीतर की ओर ध्यान देने की प्रेरणा देता है। यह हमें सिखाता है कि शिव हमारे भीतर हैं, और हमें उनके साथ अपनी एकता को पहचानना चाहिए।

अद्वैत शैव दर्शन में भक्ति, ज्ञान, और साधना के माध्यम से शिव की अद्वैत स्थिति को प्राप्त करने का मार्ग दिखाया गया है। यह दर्शन न केवल भक्ति का मार्ग है, बल्कि ज्ञान और ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का गहरा विज्ञान भी है।

जैसा कि शिवसूत्र में कहा गया है:

“ज्ञानं मोक्षः।” (शिवसूत्र, 1.1)

अर्थात, सच्चा ज्ञान ही मोक्ष है। जब साधक शिव के ज्ञान को प्राप्त करता है, तब वह बंधनों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति करता है।


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