अद्वैत बनाम शुद्ध-अद्वैत: शंकराचार्य और वल्लभाचार्य के विचारों का अन्तर!
नमस्ते शिक्षार्थियों!
क्या यह संसार और ईश्वर एक ही हैं? या दोनों अलग-अलग शक्तियाँ हैं? यह मानवता की एक अंतहीन खोज रही है कि वह एक ऐसा उत्तर, एक ऐसी व्याख्या ढूंढ निकाले जो सब कुछ स्पष्ट कर दे।
हमारी बुद्धि, चाहे वह कितना भी विशाल क्यों न हो, उस सब को समझने की कोशिश करती है।
भारतीय दर्शन इसी खोज से भरा पड़ा है और अद्वैत और शुद्ध-अद्वैत जैसी महान दार्शनिक अवधारणाओं ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। इनमें से शंकराचार्य का अद्वैत और वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जो इस पुरातन प्रश्न पर अपने अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं: क्या केवल एक ही वास्तविकता है या कई?
तो आइए जानते हैं कि शंकराचार्य और वल्लभाचार्य ने इस विषय पर क्या विचार प्रस्तुत किए और कैसे ये दोनों मत एक ही लक्ष्य की ओर अलग-अलग रास्ते दिखाते हैं।
अद्वैत और इसकी आवश्यकता
संसार के हर कोने में, हर युग में, मनुष्य ने एक मूलभूत सत्य की खोज की है—वह एक तत्व, जो सब कुछ समझा सके, जो सभी घटनाओं का मूल हो। विज्ञान इसे “एक मूलभूत शक्ति” के रूप में देखता है, जबकि दर्शन इसे “एकमात्र सत्य” के रूप में समझने का प्रयास करता है। भारतीय दर्शन में, इस एकमात्र सत्य को “ब्रह्म” कहा गया है, जो अद्वैत के सिद्धांत की नींव है।
अद्वैत का शाब्दिक अर्थ है “अ-द्वैत”, यानी “द्वैत नहीं” या “कोई द्वंद्व नहीं।” यह दर्शन बताता है कि सभी वस्तुएँ और जीव एक ही वास्तविकता से उत्पन्न हुए हैं—वह ब्रह्म। यदि सब कुछ ब्रह्म है, तो दुनिया और भगवान में कोई अंतर नहीं हो सकता। अद्वैत के अनुसार, यह जगत केवल एक माया है, और असली सत्य केवल ब्रह्म ही है।
लेकिन, यह एक प्रश्न खड़ा करता है: अगर केवल एक ब्रह्म है, तो यह दुनिया कैसी दिखती है? और यदि यह एक भ्रम है, तो क्या हम इसे अनुभव नहीं कर सकते? इन प्रश्नों का उत्तर शंकराचार्य ने अपने अद्वैत दर्शन में दिया।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत
आदि शंकराचार्य ने अद्वैत को एक गहन और तार्किक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, यह संसार हमें इसलिए वास्तविक लगता है क्योंकि हम इसे देख सकते हैं, छू सकते हैं, सुन सकते हैं—लेकिन यह केवल हमारी इंद्रियों और मस्तिष्क का भ्रम है। असल में, यह संसार एक माया है।
शंकराचार्य ने कहा कि यह माया (अज्ञानता) हमें संसार को अलग-अलग वस्तुओं और जीवों के रूप में देखने के लिए मजबूर करती है, जबकि वास्तविकता में सब कुछ ब्रह्म है। उन्होंने समझाया कि ब्रह्म एक निर्गुण, निराकार तत्व है—यह कोई गुण, रूप, रंग या आकार नहीं रखता। माया के कारण हम इसे जगत के रूप में देखते हैं।
उपनिषदों में ब्रह्म को “सत्-चित्-आनंद” के रूप में वर्णित किया गया है—अर्थात् शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना, और शुद्ध आनंद। यह ब्रह्म अपरिवर्तनीय और अखंड है, और सभी जीवों का मूल कारण है।
शंकराचार्य ने माया के सिद्धांत को समझाया ताकि यह बताया जा सके कि कैसे यह संसार हमें असली लगता है, जबकि यह केवल एक भ्रम है। उनके अनुसार:
- माया: यह एक शक्ति है, जो ब्रह्म से उत्पन्न होती है और संसार का निर्माण करती है। लेकिन यह निर्माण अस्थायी और भ्रममूलक है।
- ब्रह्म: यह एकमात्र सत्य है, जो अपरिवर्तनीय है और सभी कुछ उसी से उत्पन्न होता है।
इस दर्शन के अनुसार, जीव भी ब्रह्म का ही एक हिस्सा है, लेकिन माया के कारण वह अपने असली स्वरूप को नहीं पहचान पाता और जगत में भ्रमित होता है।
वल्लभाचार्य का शुद्ध-अद्वैत
जब शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन ने पूरे भारत में लोकप्रियता प्राप्त की, तब वल्लभाचार्य ने इस दर्शन में कुछ त्रुटियों को देखा और अपने “शुद्ध-अद्वैत” सिद्धांत की स्थापना की। वल्लभाचार्य का मानना था कि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में कुछ विरोधाभास थे, जिनका समाधान आवश्यक था।
वल्लभाचार्य ने अद्वैत को शुद्ध किया और कहा कि:
1. ब्रह्म गुणरहित नहीं, बल्कि सगुण है: शंकराचार्य ने ब्रह्म को निराकार और निर्गुण माना था, लेकिन वल्लभाचार्य ने इसे “सत्-चित्-आनंद” के साथ गुणयुक्त बताया। उनके अनुसार, ब्रह्म न केवल शुद्ध चेतना और अस्तित्व है, बल्कि यह आनंद और सृजन की शक्ति भी है।
2. ब्रह्म सृजन करता है: शंकराचार्य के मत के विपरीत, वल्लभाचार्य ने यह माना कि ब्रह्म सृजन करता है और इस संसार का कारण है। यह जगत ब्रह्म की एक अभिव्यक्ति है, न कि माया या भ्रम।
3. जगत वास्तविक है: शंकराचार्य ने संसार को माया कहा था, लेकिन वल्लभाचार्य ने इसे वास्तविक माना। उनके अनुसार, यह जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है और इसमें ब्रह्म की शक्ति निहित है।
वल्लभाचार्य का शुद्ध-अद्वैत दर्शन इस बात पर जोर देता है कि यह जगत ब्रह्म का ही एक विस्तार है, और इसके माध्यम से हम ब्रह्म को अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने माया को ब्रह्म की शक्ति के रूप में वर्णित किया, न कि भ्रम के रूप में। यह दृष्टिकोण अधिक सकारात्मक था, जिसमें जीवों और संसार को ब्रह्म का एक अभिन्न हिस्सा माना गया।
शुद्ध-अद्वैत की आलोचना और उत्तर
वल्लभाचार्य के शुद्ध-अद्वैत दर्शन के प्रति कुछ आलोचनाएँ भी की गईं, जिनका उन्होंने उत्तर दिया:
1. ब्रह्म सगुण है या निर्गुण?
वल्लभाचार्य ने कहा कि ब्रह्म सगुण है, क्योंकि उपनिषदों में इसे “सत्-चित्-आनंद” के रूप में वर्णित किया गया है। यह गुण ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का हिस्सा हैं, और इसे निर्गुण मानना उपनिषदों की शिक्षाओं के विपरीत है।
2. संसार ब्रह्म से उत्पन्न होता है, फिर इसे माया क्यों कहा जाए?
वल्लभाचार्य ने कहा कि यदि ब्रह्म संसार का सृजनकर्ता है, तो इसे असत्य या माया कहना उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि संसार ब्रह्म का वास्तविक विस्तार है, और इसे भ्रम मानना ब्रह्म की शक्ति का अपमान है।
3. वेद और उपनिषदों की सत्यता
यदि संसार माया है, तो वेद और उपनिषद भी माया के हिस्से होते हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि वे भी असत्य हैं। वल्लभाचार्य ने इस तर्क को खारिज किया और कहा कि वेद और उपनिषद ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति हैं, इसलिए वे सत्य हैं।
4. प्रतिबिंब सिद्धांत
वल्लभाचार्य ने यह भी कहा कि ब्रह्म और जगत के बीच का संबंध एक प्रतिबिंब के रूप में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि प्रतिबिंब अपनी वास्तविकता को नहीं पहचान सकता। उनका तर्क था कि यदि हम इस संसार को प्रतिबिंब मानते हैं, तो ब्रह्म भी उस प्रतिबिंब के माध्यम से भ्रमित हो सकता है। इसलिए, उन्होंने प्रतिबिंब सिद्धांत को खारिज किया और कहा कि संसार ब्रह्म की सच्ची अभिव्यक्ति है।
निष्कर्ष
शंकराचार्य और वल्लभाचार्य के दर्शन हमें ब्रह्म और जगत के संबंध को समझने के दो अलग-अलग दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। जहां शंकराचार्य ने संसार को माया कहा और ब्रह्म को निर्गुण माना, वहीं वल्लभाचार्य ने संसार को ब्रह्म की शक्ति और सगुण ब्रह्म के रूप में प्रस्तुत किया।
अद्वैत और शुद्ध-अद्वैत दोनों ही दर्शन हमें एकता का पाठ पढ़ाते हैं। अद्वैत कहता है कि सब कुछ एक ब्रह्म है और संसार केवल माया है, जबकि शुद्ध-अद्वैत बताता है कि यह संसार ब्रह्म की वास्तविक अभिव्यक्ति है। दोनों ही मत हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने की प्रेरणा देते हैं और ब्रह्म की ओर हमारा मार्गदर्शन करते हैं।