क्या विवेकानंद शंकराचार्य के विरोधी थे?
नमस्ते शिक्षार्थियों!
यह कल्पना करें कि कोई आपको बताए कि भारत के दो सबसे महान विचारक, स्वामी विवेकानंद और आदि शंकराचार्य, एक दूसरे से असहमत थे! कुछ लोगों को लगता था कि स्वामी विवेकानंद शंकराचार्य की शिक्षाओं के खिलाफ थे, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था? इस कहानी में, हम देखेंगे कि कैसे इन दोनों महान पुरुषों ने वेदांत में विश्वास किया, लेकिन थोड़े अलग तरीके से। आइए समझते हैं कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ!
हालांकि, अद्वैत दर्शन के और भी पहलू हैं। आदि शंकराचार्य के अलावा, कई अन्य दार्शनिकों ने इसके विकास में सुंदर योगदान दिया है। इनमें से एक शाखा है कश्मीरी शैववाद का अद्वैत मत। अधिक जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
जब विवेकानंद पर लगा शंकराचार्य के विरोध का आरोप!
सन 1893 में, जब स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में विश्व धर्म महासभा में भाषण दिया, तो पूरा विश्व उनके ज्ञान और उनके विचारों का कायल हो गया। लेकिन उसी समय एक सवाल उठने लगा — क्या विवेकानंद शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का विरोध कर रहे थे?
कुछ लोग यह मानने लगे कि विवेकानंद जी के नव वेदांत का शंकराचार्य जी के अद्वैत वेदांत से कोई विरोधाभास था। लेकिन क्या यह सच है? क्या स्वामी विवेकानंद शंकराचार्य के सिद्धांतों के खिलाफ थे? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें उनकी विचारधारा और समय के हालात को समझना होगा।
शंकराचार्य और विवेकानंद का संबंध!
शंकराचार्य जी और स्वामी विवेकानंद, दोनों ही भारत के महान विचारक और संत थे। शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत का प्रचार-प्रसार किया था, जो यह मानता है कि यह सृष्टि, जीव, और ब्रह्म (ईश्वर) एक ही हैं। उनके अनुसार, यह दुनिया माया है — एक भ्रम — और केवल ब्रह्म ही सत्य है।
विवेकानंद जी भी शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत से बहुत प्रभावित थे। उनके अनुसार, यह विचार गहरी आध्यात्मिकता का प्रतिनिधित्व करता था और धर्म की सार्वभौमिकता को दर्शाता था। लेकिन जहाँ शंकराचार्य जी ने अद्वैत वेदांत को एक बहुत ही आदर्श स्थिति के रूप में देखा, विवेकानंद ने इसे अधिक व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत किया ताकि यह सामान्य लोगों के जीवन में भी उतारा जा सके।
नव वेदांत की शुरुआत
विवेकानंद जी के विचारों को “नव वेदांत” कहा गया, जो अद्वैत वेदांत का एक नया और प्रगतिशील रूप था। विवेकानंद जी ने इस दर्शन को इस तरह से प्रस्तुत किया कि यह सिर्फ धर्म और आध्यात्मिकता तक सीमित न रहे, बल्कि समाज के हर व्यक्ति के लिए उपयोगी बने।
विवेकानंद जी ने माना कि माया (भ्रम) को पूरी तरह से अस्वीकार करना और दुनिया को केवल एक भ्रम मानना व्यावहारिक नहीं है। उन्होंने इसे सापेक्ष सत्य माना, जिसका अर्थ यह है कि जब तक हम इस भौतिक दुनिया में हैं, तब तक इसका अस्तित्व वास्तविक है।
अद्वैत वेदांत और नव वेदांत में अंतर
शंकराचार्य जी और विवेकानंद जी दोनों ही अद्वैत वेदांत के अनुयायी थे, लेकिन उनके दृष्टिकोण में कुछ महत्वपूर्ण अंतर थे।
1. शंकराचार्य जी का अद्वैत वेदांत: शंकराचार्य जी के अनुसार, ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और बाकी सब माया (भ्रम) है। उन्होंने ज्ञान योग को सबसे ऊँचा मार्ग बताया, और कहा कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए हमें इस भौतिक जगत को माया मानकर उससे परे जाना होगा।
2. विवेकानंद जी का नव वेदांत: विवेकानंद जी ने कहा कि माया को पूरी तरह असत्य नहीं कहा जा सकता। उनके अनुसार, यह जगत सापेक्ष सत्य है, और हमें इसे पूरी तरह नकारने की बजाय इसे समझकर, इसके साथ जीना सीखना होगा। विवेकानंद जी ने ज्ञान के साथ कर्म का भी महत्व बताया। उन्होंने कहा कि मोक्ष के लिए केवल ज्ञान नहीं, बल्कि कर्म भी आवश्यक है।
नव वेदांत की व्यावहारिकता
विवेकानंद जी ने नव वेदांत को एक व्यावहारिक जीवन दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि धर्म और ज्ञान का उपयोग केवल साधु-संतों या विशेष व्यक्तियों तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे हर व्यक्ति के जीवन में उतारा जा सकता है।
नव वेदांत के अनुसार, धर्म केवल आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं है, बल्कि यह समाज की सेवा और कर्म में भी प्रकट होना चाहिए। विवेकानंद ने कर्म और ज्ञान को जोड़ा और कहा कि केवल ज्ञान से मोक्ष नहीं मिलेगा, बल्कि कर्म के साथ-साथ ज्ञान भी जरूरी है।
विवेकानंद का नव वेदांत समाज के लिए कैसे था?
विवेकानंद जी का नव वेदांत केवल एक आध्यात्मिक सिद्धांत नहीं था। इसके माध्यम से उन्होंने समाज को सुधारने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि वेदांत का ज्ञान केवल धनी और साधन-संपन्न लोगों के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि यह हर इंसान तक पहुँचना चाहिए।
विवेकानंद ने जाति, धर्म, और वर्ग से ऊपर उठकर सभी को एक समानता के स्तर पर लाने की बात की। उन्होंने समाज सुधार, शिक्षा, और वैज्ञानिक सोच को भी महत्व दिया। उन्होंने यह भी कहा कि ईश्वर और धर्म की सच्चाई को समझने के लिए हमें पहले अपने आप को और अपने समाज को मजबूत बनाना होगा।
विवेकानंद का यह मानना था कि हमें अपने समाज की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बाद ही गहरी आध्यात्मिकता की ओर जाना चाहिए। इसी कारण उन्होंने युवाओं को प्रेरित किया, “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक तुम्हारा लक्ष्य प्राप्त न हो।”
निष्कर्ष
स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का विरोध नहीं किया। उन्होंने अद्वैत वेदांत को समय के साथ और भी ज्यादा व्यावहारिक बना दिया, ताकि यह समाज के हर वर्ग तक पहुँच सके। नव वेदांत के माध्यम से उन्होंने दिखाया कि धर्म केवल ध्यान और साधना तक सीमित नहीं है, बल्कि कर्म, सेवा, और समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी भी धर्म का हिस्सा है।
विवेकानंद जी ने अपने नव वेदांत में यह संदेश दिया कि धर्म का अर्थ केवल माया से दूर होना नहीं है, बल्कि यह समझना है कि माया के रास्ते से ही हम सच्चे ईश्वर तक पहुँच सकते हैं।
बच्चों और बड़े, दोनों के लिए यह सीखने की बात है कि विवेकानंद जी के नव वेदांत ने धर्म को सिर्फ एक विचार नहीं रहने दिया, बल्कि इसे जीवन का हिस्सा बनाया, जिससे हर कोई लाभ उठा सके। यही विवेकानंद जी की महानता थी कि उन्होंने समाज के भले के लिए पुरानी धारणाओं में सुधार किया और उन्हें नए सिरे से प्रस्तुत किया।