काम और सनातन धर्म
नमस्ते शिक्षार्थियों,
क्या आपने कभी सोचा है कि काम को केवल वासना के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए, या इसका कुछ और भी अर्थ हो सकता है? सनातन धर्म, जिसे हजारों वर्षों से हमारे ऋषि-मुनियों ने संरक्षित रखा है, काम के विषय पर एक विस्तृत और गहन दृष्टिकोण रखता है। कई बार हमें इसे समझने में दिक्कत हो सकती है क्योंकि हमारे समाज में इस पर बात करने से अधिकतर परहेज किया जाता है। लेकिन इस लेख में हम सरल रूप में समझने की कोशिश करेंगे कि सनातन धर्म में काम की क्या भूमिका है, क्यों इसे संयम के साथ निभाने पर जोर दिया गया है, और इसके पीछे का वास्तविक दृष्टिकोण क्या है।
काम का सही अर्थ
काम का सही अर्थ केवल शारीरिक संबंध या वासना नहीं है। अगर ऐसा होता, तो हमारे शास्त्रों में इसे ‘कामदेव’ का स्थान न मिलता। कामदेव को देवताओं में स्थान मिलने का अर्थ यही है कि यौन इच्छा प्राकृतिक है, और यह दुनिया के संचालन का एक आधार है।
सोचिए, अगर मनुष्यों में यौन इच्छा न हो, तो सृष्टि का विस्तार कैसे होगा? इसलिए यौन संबंध कोई बुरी या गलत चीज नहीं है, बल्कि जीवन को आगे बढ़ाने का एक तरीका है। यही कारण है कि सनातन धर्म में इसे जीवन के चार मुख्य उद्देश्यों में से एक माना गया है: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
काम, या यौन इच्छा, मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इसका स्थान धर्म और अर्थ के बाद आता है। इसका मतलब यह है कि काम का पालन उसी स्थिति में किया जाना चाहिए जब यह धार्मिक नियमों और सामाजिक नैतिकताओं का उल्लंघन न करे।
सनातन धर्म और काम के प्रति दृष्टिकोण
सनातन धर्म, जो सच्चाई और ईश्वर के मार्ग की ओर बढ़ने वाला धर्म है, इसमें हमें अपनी इच्छाओं को समझने और संयमित रखने की शिक्षा दी जाती है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि धर्म का कोई एकल स्वरूप नहीं है, इसमें कई मार्ग हैं, कई विचारधाराएँ हैं, और हम इन मार्गों पर चलने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन यह स्वतंत्रता तभी सफल हो सकती है जब हम अपनी इच्छाओं को संतुलित रखें।
धर्म के विभिन्न मार्गों में, काम के प्रति दृष्टिकोण में भी भिन्नता देखी जाती है। उदाहरण के लिए, एक ओर वैदिक काल में यौन संबंधों को बहुत पवित्र माना गया था, जबकि तांत्रिक समाजों में इसे एक आध्यात्मिक साधना का हिस्सा माना गया है। ऐसे में हमें यह समझना होगा कि यौन संबंध पाप नहीं है, जब तक वह संयमित और धर्मसम्मत हो।
ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रम में संतुलन
अब सोचिए, अगर यौन इच्छा इतनी प्राकृतिक है, तो फिर ब्रह्मचर्य (25 साल की उम्र तक) में इसे संयमित रखने की सलाह क्यों दी जाती है? इसके पीछे एक बहुत ही गहरा वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण है। प्राचीन काल में जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया था—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
ब्रह्मचर्य आश्रम में यौन इच्छाओं से दूर रहना इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इस समय युवा को विद्या, संयम और अनुशासन में पूरी तरह से लगना होता था। यह समय था जीवन की नींव रखने का, जहां हर कार्य का भविष्य पर प्रभाव पड़ता था।
अगर इस समय में कोई यौन इच्छाओं में लिप्त हो जाए, तो उसका ध्यान शिक्षा और करियर से हट सकता है। इसी कारण, ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य माना गया था ताकि एक व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता से जीवन को दिशा दे सके।
विवाह के बाद: गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद, व्यक्ति को यौन इच्छाओं को संतुलित रूप से निभाने का अधिकार मिलता है। इस समय, विवाह के बाद यौन संबंध को पवित्र माना जाता है, क्योंकि यह संतुलित जीवन का हिस्सा होता है।
कामसूत्र का वास्तविक स्वरूप
कामसूत्र का नाम सुनते ही लोग इसे केवल यौन संबंधों की शिक्षा देने वाली पुस्तक समझ लेते हैं, लेकिन इसका वास्तविक स्वरूप इससे कहीं अधिक गहरा और विस्तृत है। कामसूत्र केवल शारीरिक संबंधों की पुस्तक नहीं है। यह जीवन के कई आयामों पर आधारित है, जिनमें प्रेम, सामाजिक संबंध और व्यवहार भी शामिल हैं।
कामसूत्र के सात भागों में से केवल एक भाग यौन संबंधों पर चर्चा करता है, बाकी के हिस्से समाज में प्रेम और नैतिकता पर केंद्रित होते हैं। इसका उद्देश्य केवल यह नहीं है कि व्यक्ति यौन संबंधों का भोग करे, बल्कि उसे यह सिखाना है कि इन संबंधों को कैसे संतुलित रूप में निभाया जाए ताकि जीवन के अन्य उद्देश्य जैसे धर्म, अर्थ और मोक्ष को भी साधा जा सके।
मंदिरों में यौन चित्रण और उसका महत्व
प्राचीन भारत के मंदिरों में यौन चित्रण का होना एक रहस्यमय और विवादास्पद विषय रहा है। खजुराहो और कोणार्क के प्रसिद्ध मंदिरों की दीवारों पर बने यौन चित्रण देखकर कई लोग सोचते हैं कि इन धार्मिक स्थलों पर इस प्रकार के चित्रण क्यों किए गए हैं?
वास्तव में, मंदिरों में यौन चित्रण केवल शारीरिक संबंधों को दिखाने के लिए नहीं थे। उनका एक गहरा उद्देश्य था। विद्वानों का मानना है कि ये चित्रण भौतिक संसार की मोह-माया से दूर जाने का प्रतीक हैं। जब आप मंदिर में प्रवेश करते हैं, तो आपको संसार के भोगों और आकर्षणों को पीछे छोड़कर, ईश्वर की भक्ति में लीन होना चाहिए।
मंदिर के बाहर की दीवारों पर बने यह चित्रण हमें यह याद दिलाते हैं कि संसार में भोग और इच्छाएं भी जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन इनका स्थान मंदिर के अंदर नहीं है। मंदिर में प्रवेश करते ही इन सभी इच्छाओं को पीछे छोड़ देना चाहिए और ईश्वर की आराधना करनी चाहिए।
यौन संबंधों को लेकर विभिन्न मत
सनातन धर्म की सबसे खास बात यह है कि यह हमें एक ही विषय पर अलग-अलग दृष्टिकोणों को स्वीकारने की क्षमता देता है। उदाहरण के लिए, यौन संबंधों के विषय में भी अलग-अलग मत हैं। एक ओर, वैदिक दर्शन इसे पवित्र और संयमित कर्तव्य मानता है, वहीं तांत्रिक विचारधारा इसे आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग मानती है।
लेकिन दोनों ही मतों का मूल संदेश यही है कि यौन संबंध तभी पवित्र हैं जब वे धर्म और नैतिकता का पालन करते हुए निभाए जाएं। विवाह के बाद बनाए गए यौन संबंधों को धर्मसम्मत और पवित्र माना जाता है, जबकि विवाह पूर्व संबंधों को संयम से दूर माना जाता है, क्योंकि वे जीवन के अन्य उद्देश्यों को बाधित कर सकते हैं।
निष्कर्ष
अंततः यह समझना महत्वपूर्ण है कि काम केवल वासना नहीं, बल्कि जीवन का एक प्राकृतिक और आवश्यक हिस्सा है। जब इसे धर्म, अर्थ, और मोक्ष के साथ संतुलित किया जाता है, तो यह जीवन को संपूर्णता की ओर ले जाता है।
सनातन धर्म हमें यह सिखाता है कि यौन संबंधों का स्थान हमारे जीवन में धर्म और अर्थ के बाद आता है। अगर यौन संबंध धर्म और अर्थ को नष्ट करते हैं, तो उन्हें संयमित रखना जरूरी है। लेकिन जब यह संबंध धर्म के नियमों के अनुसार बनाए जाते हैं, तो उन्हें पवित्र माना जाता है।
तो, काम पाप नहीं है, बस उसे संयमित और धर्मसम्मत रूप में निभाया जाए, ताकि यह हमारे जीवन को संपूर्णता और समृद्धि की ओर ले जाए।