मन और शरीर का द्वैतवाद: डेकार्ट्स और सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण

नमस्ते शिक्षार्थियों!

हमारे शरीर और मन के बीच का संबंध क्या है? ये सवाल हमे सदैव ही संदेह में डालता आया है। इस द्वैतवाद को समझने के लिए पश्चिम के महान दार्शनिक रेने डेकार्ट्स का मन-शरीर द्वैतवाद और भारतीय सांख्य दर्शन ने अपने अपने मत प्रस्तुत किए है। आइए, समझते है कि कैसे ये दो विपरीत दर्शन हमारे मन और शरीर के जटिल संबंध के रहस्य को समझाते है।

परिचय

कभी-कभी हमें ऐसा लगता है कि हमारा शरीर और मन एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। जैसे किसी डरावनी फिल्म के दृश्य पर हमारा दिल तेजी से धड़कने लगता है और शरीर कंपकंपाने लगता है। दूसरी ओर, कभी-कभी ऐसा महसूस होता है कि मन और शरीर पूरी तरह से अलग हैं। जैसे कि जब हम किसी चीज़ पर विचार करते हैं या हमें कोई पुरानी बाते याद आती हैं, तो ऐसा नहीं होता कि इसका हमारे शरीर पर सीधा प्रभाव पड़े, यह केवल मन की क्रियायें होती है, शरीर की नहीं। 

यह सवाल हमें सोचने पर मजबूर करता है, क्या हमारा मन और शरीर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं या ये दो अलग-अलग चीजें हैं? यह प्रश्न लंबे समय से दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के बीच बहस का विषय रहा है। आज हम इस सवाल के दो प्रमुख उत्तरों को समझने का प्रयास करेंगे: पश्चिमी दार्शनिक रेने डेकार्ट्स का मन-शरीर द्वैतवाद और भारतीय सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण।

मन और शरीर का जटिल संबंध

इस विषय को समझने के लिए हमें सबसे पहले यह जानना होगा कि मन और शरीर का संबंध हमारे रोजमर्रा के अनुभवों में कैसे दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए हम कोई डरावनी फिल्म देख रहे हैं, और एक भयानक दृश्य अचानक से सामने आ जाता है। हमारे मन में डर पैदा होता है, जो कि केवल एक भाव है, लेकिन उसका प्रभाव  हमारे शरीर पर दिखाई देता है, दिल की धड़कन बढ़ जाती है, शरीर कांपने लगता है।

दूसरी ओर, कभी-कभी हमें लगता है कि शरीर की कोई प्रतिक्रिया सीधे मन पर प्रभाव  डालती है। जैसे कि अगर हम गर्म पानी में हाथ डाल दें तो तुरंत हमारा हाथ पीछे खिंच जाता है। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए क्योंकि यह संकेत हमारे शरीर से मन को भेजा गया था, और मन ने इसे एक चेतावनी के रूप में ग्रहण किया।

इस तरह के अनुभव हमें एक जटिल सवाल के सामने खड़ा करते हैं, मन और शरीर का संबंध क्या है? क्या दोनों एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं, या यह सब केवल एक भ्रम है?

डेकार्ट्स का मन-शरीर द्वैतवाद

पश्चिमी दर्शन में, फ्रांसीसी दार्शनिक रेने डेकार्ट्स ने 17वीं शताब्दी में इस सवाल का उत्तर देने के लिए “मन-शरीर द्वैतवाद” का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत का मुख्य आधार यह था कि हमारा मन और शरीर दो अलग-अलग तत्व हैं।

डेकार्ट्स के अनुसार, हमारे अस्तित्व को दो भागों में बाँटा जा सकता है:

1. Res Cogitans (सोचने वाला तत्व): यह मन या चेतना है, जिसमें विचार, भावनाएँ, और इच्छाएँ होती हैं।

2. Res Extensa (फैलने वाला तत्व): यह हमारा शरीर और भौतिक दुनिया है, जो आकार, स्थान, और अन्य भौतिक गुणों से युक्त है।

डेकार्ट्स का यह मानना था कि हमारा शरीर केवल एक भौतिक वस्तु है, जबकि मन एक अमूर्त (Non-Physical) तत्व है, जिसे न तो हम देख सकते हैं, न छू सकते हैं। उनके अनुसार, हमारे मन में जो विचार या भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, वे हमारे शरीर को उसी तरह प्रभावित नहीं करतीं जिस तरह शरीर की भौतिक क्रियाएँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं।

मन-शरीर संबंध की चुनौतियाँ

हालांकि डेकार्ट्स का सिद्धांत नया और महत्वपूर्ण था, लेकिन इसमें एक बड़ी समस्या भी थी। उन्होंने माना कि मन और शरीर अलग हैं, लेकिन अगर ये दोनों अलग-अलग तत्व हैं, तो एक-दूसरे को प्रभावित कैसे करते हैं? जैसे मान लीजिए कि आप चाय का कप उठाना चाहते हैं। आपके मन में यह विचार आता है, और उसके बाद आपका शरीर उसे उठाने के लिए क्रिया करता है। मन का आदेश शरीर तक कैसे पहुँचता है?

इस सवाल का जवाब देने के लिए डेकार्ट्स ने कहा कि हमारे दिमाग में एक विशेष जगह है, जिसे पीनियल ग्रंथि (Pineal Gland) कहते हैं। उन्होंने दावा किया कि यही वह बिंदु है जहाँ मन और शरीर आपस में मिलते हैं। जब हमारे मन में कोई विचार या आदेश उत्पन्न होता है, तो पीनियल ग्रंथि उसे शरीर तक पहुँचाती है।

परंतु आधुनिक विज्ञान ने इस सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पीनियल ग्रंथि केवल एक जैविक ग्रंथि है और मन-शरीर संवाद में इसकी कोई विशेष भूमिका नहीं है। इस तरह डेकार्ट्स का सिद्धांत कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ देता है।

सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण

अब आइए भारतीय सांख्य दर्शन को समझें, जो कि मन और शरीर के संबंध को समझाने का एक गहरा और अद्भुत दृष्टिकोण प्रदान करता है। सांख्य दर्शन के अनुसार, पूरी सृष्टि दो प्रमुख तत्वों से बनी है:

1. पुरुष (आत्मा या चेतना) – यह चेतन तत्व है, जो शुद्ध, अपरिवर्तनीय और निर्गुण होता है। इसका काम केवल देखना है, वह किसी भी क्रिया में शामिल नहीं होता।

2. प्रकृति (भौतिक या जड़ तत्व) – यह सभी भौतिक वस्तुओं का स्रोत है, जिसमें हमारे शरीर, मन, और अन्य सभी भौतिक चीजें शामिल हैं। प्रकृति के तीन गुण होते हैं: सत, रज, और तम, जो इसकी सभी क्रियाओं को निर्धारित करते हैं।

सांख्य दर्शन का मानना है कि मन भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है, यानी जड़ है। मन, बुद्धि, और अहंकार मिलकर एक तत्व बनाते हैं जिसे चित्त कहते हैं। क्योंकि चित्त प्रकृति का ही अंग है, इसलिए यह शरीर के साथ संवाद कर सकता है।

सांख्य द्वारा मन-शरीर समस्या का समाधान

सांख्य दर्शन का सबसे अनोखा पहलू यह है कि यह मन और शरीर के बीच के संबंध को बहुत सरलता से समझा देता है। चूँकि मन और शरीर दोनों ही जड़ हैं और एक ही तत्व का हिस्सा हैं, इसलिए उनके बीच संवाद और प्रभाव आसानी से संभव है।

सांख्य दर्शन के अनुसार, आत्मा (पुरुष) केवल साक्षी है, जो केवल देखती है, लेकिन किसी क्रिया में भाग नहीं लेती। उदाहरण के लिए, जब आप किसी गर्म चीज़ को छूते हैं, तो आपका शरीर प्रतिक्रिया करता है और तुरंत हाथ पीछे खींच लेता है। लेकिन यह प्रतिक्रिया केवल चित्त का अनुभव है; आत्मा केवल इसे देखती है।

इस तरह, जहाँ डेकार्ट्स का मन-शरीर द्वैतवाद हमें भ्रमित कर सकता है, वहीं सांख्य दर्शन इसे बड़ी सरलता से सुलझा देता है। यह बताता है कि मन और शरीर दोनों जड़ हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, जबकि आत्मा केवल एक साक्षी है।

निष्कर्ष

इस प्रकार, भारतीय सांख्य दर्शन और पश्चिमी दर्शन के बीच का अंतर यह है कि जहाँ डेकार्ट्स ने मन को चेतन माना, वहीं सांख्य ने इसे जड़ कहा। इसी कारण से सांख्य दर्शन मन-शरीर के संबंध को सरलता से समझा देता है। सांख्य दर्शन हमें यह सिखाता है कि आत्मा केवल साक्षी है, और सारे कार्य प्रकृति के तीन गुणों से संचालित होते हैं।


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